दर्प का सत्य
एक नगर में एक तीरंदाज रहता था। उसने तीरंदाजी में इतनी निपुणता हासिल कर ली थी कि वह निशाने पर लगे तीर पर फिर से निशाना लगा कर उसे बीच में से दो-फाड़ कर देता था। अपनी कौशलता पर उसे घमंड हो आया और वह अपने आपको अपने गुरु से भी ऊँचा समझने लगा।
शिष्य का यह अभिमान गुरु तक पहुँचना ही था। गुरु ने एक दिन अपने शिष्य से यात्रा पर चलने को कहा। रास्ते में एक नदी पड़ती थी, जिस पर पुल नहीं था। एक बड़े से वृक्ष को काटकर पुल का रूप दे दिया गया था। नदी किनारे पर पहुँचते ही गुरु ने शिष्य से रुकने को कहा और तीर धनुष लेकर वृक्ष के तने के बने पुल के सहारे नदी की बीच धारा के ऊपर पहुँच गए। और वहाँ से किनारे एक वृक्ष पर निशाना साध कर तीर चलाया। तीर वृक्ष के तने पर धंस गया। गुरु ने फिर से निशाना लगाकर तीर चलाया और वृक्ष पर धंसे तीर को बीच में से दो-फाड़ कर दिया।
गुरु ने शिष्य से ऐसा ही करने को कहा। शिष्य पुल रूपी वृक्ष के तने के बीच में पहुँचा। नीचे नदी की तेज धारा बह रही थी। थोड़े से ही असंतुलन से नीचे गिर जाने और धारा में बह जाने का खतरा था। शिष्य ने तीर चलाया। वह वृक्ष के तने में जा धंसा। अब शिष्य ने उस धंसे तीर को दो-फाड़ करने के लिए दोबारा निशाना लगाया। मगर तीर निशाने पर लगने के बजाए वृक्ष के तने से कई इंच बाहर निकल कर जा गिरा। दरअसल नीचे बहती नदी की तेज धारा और लकड़ी के तने से बने संकरे फिसलन युक्त पुल की वजह से भयभीत हो उसके कदम लड़खड़ा रहे थे और इस वजह से उसका निशाना चूक गया था। जबकि गुरु ने अपने भय पर पहले ही नियंत्रण पा लिया था।